हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार , ईरान के मशहूर ख़तीब हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन सैयद हुसैन मोमनी ने क़ुम में हय्यात फ़ातिमीयून की तरफ से शहादत के दिन हज़रत ज़हरा (स.अ.) की मुनासिबत से मुनक़द मजलिसे अज़ा में ख़िताब करते हुए कहा है कि हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ.) ने अपनी अमली ज़िंदगी से यह दर्स दिया कि बुराइयों और मुनकिरात के सामने चुप्पी साध लेना दुरुस्त नहीं है।
उन्होंने कहा कि इमामे जमाना अ.ज.के हक़ीकी मुंतज़िर वह हैं जो फ़ातिमी तरीक़े अमल के मुताबिक अम्र बिल मारूफ़ और नही अनिल मुनकर को अपनी ज़िम्मेदारी समझते हैं।
उन्होंने कहा कि अक़्ल इंसान को ख़ुदा, रसूल (स.अ.व.) और आइम्मा मासूमीन (अ.स.) की इताअत का हुक्म देती है, जैसा कि क़ुरआन करीम में इरशाद है अतीऊल्लाहा व अतीऊर्रसूल व उलिल अम्रे मिनकुम" (सूरए निसा, आयत 59)। मुफ़स्सिरीन शिया व सुन्नी के मुताबिक "उलिल अम्र" से मुराद मासूम इमाम हैं। इस तरह इताअते इलाही व नबवी व इमामत, अक़्ल व शरीयत दोनों की नज़र में वाजिब है।
हुज्जतुल इस्लाम मोमनी ने कहा कि हज़रत ज़हरा (स.अ.) की दो बुनियादी ज़िम्मेदारियां थीं,एक उम्मत को फ़क़दाने रसूल (स.अ.व.) की अज़मत से आगाह करना, और दूसरी हज़रत अली (अ.स.) की ग़ुरबत व तनहाई को नुमायाँ करना। उन्होंने बताया कि हज़रत (स.अ.) ने अपनी शदीद जिस्मानी तकलीफ़ों के बावजूद लोगों को इमामत की मज़लूमियत से आगाह करने का सिलसिला जारी रखा।
उन्होंने कहा कि आज के दौर में भी इमामे जमाना (अ.ज.) की ग़ुरबत वाजेह है, और उनके मुंतज़िरीन का फ़र्ज़ है कि इस ग़ुरबत को दूर करने की कोशिश करें। यह कोशिश उनके नाम व याद को ज़िंदा रखने, मजालिसे अज़ादारी बरपा करने और अहकामे इलाही पर अमल के ज़रिए अंजाम पाती है।
उस्ताद ए हौज़ा ने कहा कि इताअते ख़ुदा व रसूल (स.अ.व.) और उलिल अम्र इस वक़्त मुमकिन है जब इंसान मारिफ़त हासिल करे, क्योंकि मारिफ़त ही मुहब्बत और विलायत को जन्म देती है। हज़रत ज़हरा (स.अ.) ने भी हज़रत अली (अ.स.) की विलायत और उनकी मज़लूमियत के दिफ़ा (बचाव) में अपनी जान कुर्बान कर दी, जो हक़ीकी मारिफ़त की अलामत है।
उन्होंने कहा कि हज़रत ज़हरा (स.अ.) ने ख़ुत्बए फ़दकिया के ज़रिए उम्मत को वाजेह (स्पष्ट) पैग़ाम दिया कि जब इमामत व विलायत ख़तरे में हो तो ख़ामोश रहना गुनाह है। उन्होंने तमाम मुसलमान ख़वातीन के लिए एक बावक़ार (गरिमामय) और बसीरत अमीज़ नमूना पेश किया।
हुज्जतुल इस्लाम मोमनी ने कहा कि मुंतज़िराने इमामे जमाना (अ.ज.) का फ़र्ज़ है कि बुराइयों के सामने बेहिसी न दिखाएं। अगर समाज में मुनकिरात बढ़ रहे हैं तो यह देखना होगा कि क्या हमारे अंदर इस्लाहे उम्मत का जज़्बा मौजूद है? उन्होंने कहा कि यह फ़र्ज़ तब मोअस्सिर होगा जब ख़ुद अमले सालेह के साथ और हिकमत (बुद्धिमत्ता) व बसीरत (दूरदर्शिता) के साथ अंजाम दिया जाए।
उन्होंने आख़िर में कहा कि इंतज़ारे इमामे जमाना (अ.ज.) का मतलब हाथ पर हाथ रखकर बैठना नहीं बल्कि अमल कोशिश और इस्लाहे समाज (समाज सुधार) के लिए जद्दोजहद (प्रयास) है। जैसे हज़रत ज़हरा (स.अ.) ने इमामे वक़्त की ग़ुरबत के इज़ाले के लिए जद्दोजहद की, हमें भी इसी राह पर चलना चाहिए ताकि हम इमामे आस्र (अ.ज.) के हक़ीकी मुंतज़िर साबित हों।
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